Prayagraj में Sangam तट पर बने बिसलकाय किले का अनसुना इतिहास

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Prayagraj में Sangam तट पर बने बिसलकाय किले का अनसुना इतिहास

संगम क्षेत्र में यमुना नदी के तट पर विशाल पत्थरों से बना अकबर का किला आपने अवश्य देखा होगा किंतु इस किले का इतिहास इतना विवादित और रहस्य से भरा है कि आज भी इसे लेकर इतिहासकारों में गहरा मतभेद है। 100 साल पुराने अंग्रेजों द्वारा प्रकाशित इलाहाबाद के जेतियर का गहराई से अवलोकन करने के बाद ऐसे बहुत सारे नए अविश्वसनीय तत्व सामने आए है जिसे जानकर आप अवश्य ही हैरान हो जाएंगे। क्या कभी आपने इस पर विचार किया है की अकबर ने आखिर इसी स्थान पर इस किले का निर्माण के बारे में क्यों सोच? इसका उत्तर जानने के बाद आपको आश्चर्य भी होगा और दुख भी।

आज से 1377 साल पहले अर्थात 644 ईस्वी में एक बौद्ध भिक्षु चीनी यात्री ह्वेन त्सांग भारत भ्रमण करते हुए राजा हर्षवर्धन कालखंड में व्यापार एवं धर्म के लिए आयोजित संसार के सबसे विशाल मेले कुंम्भ का आलोपण करने हेतु गंगा नदी के मार्ग से संगम क्षेत्र तक पहुंचा अपने यात्रा के अनुभव को उसने अपनी पुस्तक Si-Yu-Ki मे विस्तार पूर्वक लिखा है। जिसमें एक ऐसे कूप का वर्णन है जो नर कंकालों से भरा हुआ था। तो आज की तारीख में वह कूप कहां पर है और क्या है नर कंकाल होने का रहस्य।

पुराणों के अनुसार संगम क्षेत्र में एक विशाल अक्षयवट नामक वृक्ष था जो आज भी है। रामायण अनुसार गंगा को पार करने के बाद श्री राम अपने भाई लक्ष्मण और सीता के साथ संगम स्नान के उपरांत एक रात अक्षयवट के नीचे व्यतीत किया। यहीं पर उन्होंने एक शिवलिंग की स्थापना की कालांतर में वह शिवलिंग भूमि में समा गया और इस जहां पर कूप का निर्माण हुआ। यह कूप पाताल लोक से प्रभावित सरस्वती नदी के नीर से जलमग्न हो उठा। इसी जलाशय को अकबर ने पत्थरों से पटवा कर पातालपुरी मंदिर का निर्माण करवाया।

पर प्रश्न यह है कि एक मुस्लिम होकर हिंदुओं के लिए पातालपुरी मंदिर का निर्माण आखिर अकबर ने किस भावना के वशीभूत होकर करवाया और क्या चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने जिन मानव कंकालों का होने की बात कही थी क्या वो इसी कूप मे पाए गए थे?

इसका उत्तर बड़ा ही रोचक है। कालांतर में इस गहरे जलाशय को कामकूप के नाम से जाना गया। इसके बारे में स्थानीय लोग को यह मान्यता प्रचलित हुई की कूप में संग्रहित सरस्वती के जल से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस मान्यता ने इतना व्यापक रूप लिया कि यथा-कथा लोग अक्षयवट की डाली पर चढ़कर लोग छलांग लगाकर मोक्ष पाने हेतु आत्महत्या करने लगे। हालांकि राजा हर्षवर्धन ने इसे रोकने का प्रयास किया था किंतु इसके बावजूद ये आत्महत्या करने का सार्वजनिक स्थान बन चुका था।

1583 में अपनी यात्रा के दौरान जब अकबर इस स्थान पर पहुंचा तो उसने इस कूप का निरीक्षण किया जो मानव कंकालों से भरा हुआ था उस समय यहाँ के स्थानीय पुजारी ने अकबर के जन्म कुंडली के माध्यम से यह बतलाया कि पिछले जन्म में आप इस वृक्ष के नीचे मुकुंद ब्रह्मचारी नामक एक तपस्वी थे भूल से अपने दूध में गाय का बाल निगल लिया था जो की गाय हिंदुओं में पूजनीय मानी जाती है। अतः इस पाप से मुक्त होने के लिए आपने इसी कूप मे कूद कर मोक्ष प्राप्त किया था।

परिणाम स्वरूप आप इस जन्म में सम्राट के रूप में वापस आए क्योंकि पिछले जन्म में आप एक प्रवासी थे अतः आपका भाग्य पुन आपको यहां खींच लाया है। एक राजा के रूप में अब आपका उत्तरदायित्व है कि अक्षयवट वृक्ष के नीचे इस कूप पर 44 देवताओं वाले मंदिर की स्थापना करें ताकि मोक्ष प्राप्त करने के लिए लोग अपने जीवन की बाली ना दें बल्कि उसे मंदिर में दर्शन करके अपने जीवन को कृतार्थ करें साथ ही इस मंदिर के निर्माण से आपकी कीर्ति चारों दिशाओं में फैलेगी। हर युद्ध में आपकी विजय होंगे ।

यही वह घटना थी जिसने अकबर को पाताल पुरी मंदिर के निर्माण के लिए प्रेरित किया। मंदिर के निर्माण के अलावा अकबर ने यहां पर सैनिक छावनी बनाने के लिए 4 किले के निर्माण की विस्तृत योजना बनाई लेकिन यमुना नदी के घटते – बढ़ते जलप्रवाह से इतना विलंब हुआ की 20000 मजदूरों के सीमित श्रम के बावजूद इसका निर्माण कार्य 45 साल 5 महीने उन 10 दिन तक चला। उस समय इस किले को बनाने में 6 करोड़ 17 लाख 20 हज़ार 224 रुपए की धनराशि खर्च हुई थी।

27 अक्टूबर 1605 जब अकबर की मृत्यु हुई तब भी यह किला निर्माण अधीन था और चार किलों में मात्र एक ही भाग बनकर तैयार हो पाया था। अंग्रेजों के साथ बक्सर के युद्ध में हारने के बाद सन 1765 में रॉबर्ट क्लाइंव और मुगल शासक शाह आलम -2 के बीच इलाहाबाद मे प्रथम सन्धि हुई। इस सन्धि के माध्यम से ईस्ट इंडिया कंपनी ने धीरे-धीरे मुगल साम्राज्य को नियंत्रण में लेना प्रारंभ कर दिया।

सन्धि के बाद अंग्रेजी सेना द्वारा इलाहाबाद के किले पर कब्जा कर लिया गया लेकिन किले के रख-रखाव का खर्च इतना अधिक था कि उन्होंने चालाकी से 2 साल बाद ही 50 लाख रुपए में अवध के नवाब शुजाउददौला को यह बेच दिया। उसके बाद उनके पर पोते शहरात अली खान -2 आर्थिक दंगे के चलते 1798 में यह किला दोबारा अंग्रेजों को दे दिया। शीघ्र अंग्रेजों ने इस किले को अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने के लिए छावनी में बदलकर सुरक्षा एवं युद्ध से जुड़े हुए सभी आयुद्ध संग्रहित कर दिए।

भारत की आजादी के बाद वर्तमान में भारतीय सेना इसको छावनी के रूप में ही प्रयोग करती है। मात्र अक्षयवट एवं पातालपुरी मंदिर दर्शनों के लिए किले का बाहरी हिस्सा पर्यटको के लिए खोला गया है।दूसरा बड़ा प्रश्न इतने विशाल किले के निर्माण के लिए पत्थर कहां से लाएगए निश्चय ही इतने भीमकाय किले के निर्माण हेतु विशाल स्तर पर पत्थरों को काटकर यमुना नदी के मार्ग से संगम क्षेत्र तक लाना पड़ा होगा।

मिर्जापुर के तरफ भी पथरीले चट्टान पाए जाते हैं जिनके द्वारा चुनार के किले का निर्माण किया गया था। किंतु यमुना की उल्टी धारा में भारी भरकम पत्थरों को नाव से ले आना बहुत ही मुश्किल काम है इसके विपरीत शंकरगढ़ की ओर से पत्थरों को यमुना की धारा के साथ कम परिश्रम से शीघ्रही लाया जा सकता था।

अब प्रश्न यह है कि वह स्थान कहां है। जहां से इतने बड़े-बड़े पत्थर इतनी अधिक मात्रा में काटकर निर्माण स्थल तक लाए गए।

यदि अकबर के किले से नाव द्वारा यमुना की विपरीत धारा में यात्रा करें तो 18 किलोमीटर बाद भेहटा से सेट देवइया गांव में यमुना नदी के मध्य 60 फीट ऊंचे पत्थरों में एक विकलक्षण मंदिर दिखाई पड़ता है स्थानीय लोग इसे सूजावन देव के नाम से पूजते है।

सबसे विचित्र प्रश्न यह है कि यह रचना किसी इंसान द्वारा की गई है या प्रकृति ने खुद तराशा है। तत्वों के प्रमाण से ऐसा ज्ञात होता है कि आज से 400 साल पहले यानी अकबर के किले के निर्माण से पूर्व यह पूरा स्थान बड़े चट्टानों से भरा हुआ था। इन्हीं चट्टानों के ऊपर हजारों वर्ष प्राचीन एक ऐसा मंदिर था जिसके बारे में यह मान्यता थी कि यमुना को पार करके चित्रकूट जाते समय श्री राम ने यहां पर शिवलिंग का निर्माण किया था।

अपनी यात्रा के दौरान राम लक्ष्मण सीता ने हर उस स्थान पर शिवलिंग की स्थापना की जहां पर उन्होंने एक रात्रि विश्राम किया था। इस मंदिर के आसपास एक प्राचीन सभ्यता निवास करती थी जिनकी आस्था इस मंदिर के प्रति बहुत गहरी थी। आज भी उसे सभ्यता के वंशज भीतर से सेट देवरिया गांव में मौजूद है। जो यमुना में नाव चला कर अपना जीवन यापन करते हैं। इन्हीं के पूर्वजों को किले के निर्माण हेतु पत्थरों को लाने का कार्य सौपा गया था।
धीरे-धीरे किले के निर्माण के लिए यहां से पत्थरों का कटाव शुरू हुआ तो मंदिर के आसपास के हिस्से को छोड़ दिया गया। जिसके परिणाम स्वरुप सूजावन देवता के इस विलक्षण मंदिर का अद्भुत दृश्य प्रकट हुआ।

इसी पहाड़ी के नीचे सीता रसोई का भी वर्णन प्राप्त होता है। जो यमुना नदी के नीचे समा गया है कहा जाता है कि जब इस पहाड़ी पर श्री राम लक्ष्मण सीता रात के समय विश्राम कर रहे थे। तो एक दिन यमुना का जलस्तर बढ़ने लगा जिसके कारण उन्हें यहां से लगभग 2 किलोमीटर दूर एक अन्य पहाड़ी में प्राकृतिक रूप से निर्मित गुफा में शरण लेनी पड़ी। बाद में इस घटना को एक पौराणिक कथा के अनुसार चित्रित किया गया।

कथा के अनुसार उस रात यमराज स्वयं अपनी बहन यमुना से मिलने आए थे किंतु श्री राम द्वारा स्थापित शिवलिंग को देखकर वह प्रसन्न हो गए और उन्होंने यमुना को यह वरदान दिया कि जो भी भाई अपनी बहन के साथ इस शिवलिंग पर सच्चे भाव से आराधना करेगा उसके भीतर से मृत्यु का भय समाप्त हो जाएगा। तब से यह कथा इतनी प्रचलित हुई की नवंबर में आयोजित होने वाले भाई दूज के अवसर पर तीन दिनों का विशाल स्थानीय मेला लगता है। जिस गुफा में श्री राम ने शरण ली थी उसे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के देख रेख मे प्रमाणित किया गया।

प्राचीन गुफाओं के दीवारों पर मौजूद कार्बनिक पदार्थ के निरीक्षण से आयु की गणना लग भग 7000 वर्ष पूर्व आंकी गई है।
अर्थात 7000 साल पहले इस गुफा में मनुष्य के रहने के संकेत प्राप्त हुए है। स्थानीय लोग इस टीले को सीता रसोई के नाम से पूजते हैं।
आस्था को केंद्रित करने के लिए यहां पर रहने वाले लोगों द्वारा टीले के ऊपर सीता जी उनकी प्रतिमा और चरण चिन स्थापित किए गए हैं। यहां से डेढ़ किलोमीटर दूर भीटा नामक गांव में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा मंदिर के आसपास रहने वाली प्राचीन सभ्यता के गहरे अवशेशो को चिन्हित कर लिया गया है।

1909 से 1910 के बीच अंग्रेज मार्सल से रेलवे पुल के निर्माण के लिए पत्थरों की खोज में जब इस ऊंचे टीले की खुदाई करवाई तो उन्हें ईंटों की विशेष संरचनाएं प्राप्त हुई। व्यापक रूप से जब यहां पर खुदाई हुई तब मिट्टी के कई अलंकृत बर्तन प्राप्त हुए।जिन पर महाकवि कालिदास द्वारा लिखे गए अभिज्ञानम शकुंतलम नाटक के कुछ दृश्य अंकित थे। इस आधार पर कालिदास के जन्म का समय आज से 22 या 2300 साल पहले का आंकड़ा जा सकता है। अर्थात ईसा मसीह के जन्म से 100-200 साल पहले।

जो की खुदाई में यहां से बुद्ध की प्रतिमा भी प्राप्त हुई थी। अतः यह सभ्यता कम से कम 2400 साल पुरानी मानी जा सकती है। तो जो निष्कर्ष निकलता है उसके आधार पर पातालपुरी मंदिर 400 वर्ष प्राचीन है , अकबर का किला 400 वर्ष प्राचीन है , सुजावन देव मंदिर वर्तमान स्वरूप 400 वर्ष प्राचीन है , भीटा की सभ्यता 2400 वर्ष प्राचीन है , सीता रसोई गुफा 7000 वर्ष प्राचीन है ।

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